ये रिश्ते ही हैं!!!

रिश्तों को परखना नहीं चाहिए... रिश्तों पर विश्वास करना चाहिए...

शनिवार, 18 सितंबर 2010

आप सबका स्वागत है

मैं पंकज आज से आप दोस्तों के साथ ब्लॉगिंग के जरिये जुड़ रहा हूं। ये रिश्ता और बढ़े, यही कामना है।

वो कौन था......

मेरे गांव को आखिरी बस शाम 6.30 बजे जाती थी करीब डेढ़ घंटे का सफर था। दिसंबर का महीना, सर्दी की शाम, पहाड़ों में अंधेरा 5 बजे ही हो जाता है। मैं दिल्ली से शिमला लौटा था सोचा यहां क्या रुकना .....बातल (मेरा गांव) ही चला जाता हूं।
पापा-मम्मी ज्यादातर गांव में ही रहते हैं तो उनसे भी मिलना हो जाएगा। सो पकड़ ली आखिरी बस। ड्राइवर, कंडक्टर और कुल दस-पंद्रह लोग रहे होंगे बस में सभी हिंदी बोल रहे थे पर उनके बोलने में पहाड़ीपन झलक रहा था। जुल्मी संग आंख लड़ी- ये गाना बज रहा था बस में। ऊंचे नीचे रास्तों पर बलखाती इठलाती बस चली जा रही थी। पहाड़ों पर यहां वहां सब तरफ घरों की रौशनी टिमटिमा रही थी।
कहां दिल्ली की चकाचौंध शोरशराबा और कहां पहाड़ों पर सन्नाटे को चीरती सिर्फ बस की आवाज और वो गाना। सबकुछ बहुत अच्छा लग रहा था। अचानक बस रुकी, कंडक्टर बोला अर्की आ गया गड्डी यहां 20 मिनट रुकेगी। हम खाना खाएंगे। रात को खाना गांव में कहां मिलेगा सो ड्राइवर और कंडक्टर खाना यहीं खा लेते हैं।
अर्की....हमारे गांव की तहसील है ..एक छोटा सा टाउन है। ये बस रात को मेरे गांव में रुक जाती है। सुबह लोगों को लेकर शिमला आ जाती है। जो लोग शिमला में नौकरी करते हैं यहां पढ़ते हैं उन्हें लेकर आती है। अर्की से बस को आधा घंटा लगता है गांव पहुंचने में ...पैदल बातल जाना हो तो भी उतना ही समय लगता है। मैंने सोचा यहां इंतजार क्या करना, पैदल ही चले चलता हूं।
अपना बैग उठाया और चल निकला। घरों की रौशनी जब तक बस्ती थी उसने रास्ता दिखाया फिर काला सियाह अंधेरा मेरा रास्ता रोके खड़ा था। मैंने टॉर्च निकाल ली। सर्द पहाड़ों की रात हो और अगर कोई कहे कि मुझे डर नहीं नहीं लगता तो यकीन जानिये वो झूठ कहता है। मैं भी डरा-डरा सा बढ़ता चला जा रहा था कि अचानक किसी के खांसने की आवाज आई।
इससे पहले कि कुछ सोचता .. देखा एक बूढ़ा आदमी मेरे साथ चलने लगा था। ताज्जुब तब हुआ जब उसने मुझे मेरे नाम से पुकारा। हैरानी हुई कि मुझे कैसे जानता है। फिर उसने मेरी बहन की मौत पर अफसोस भी जताया। मम्मी- पापा भाई सभी को तो जानता था। पत्नी के बारे में भी पूछ रहा था और बेटी को आशीर्वाद भी दे रहा था।
छोटा कद.. उम्र रही होगी कोई सत्तर- पचहत्तर साल। बोल कम रहा था खांसता ज्यादा था। खैर, एक से दो भले उसके आने से मेरा डर जरूर कम हो गया था। घना जंगल का रास्ता और ढलान। जब ढलान खत्म हुई तो चड़ाई शुरू हो गई। फिर गांव की सीमा भी आ गई। वहां एक प्राइमरी स्कूल है उसमें एक छोटा सा एक ग्राउंड भी है। बचपन की कई यादें जुड़ी हैं इस स्कूल से सर्दी की छुट्टियों में गांव के बच्चों के साथ खूब क्रिकेट खेला करता था।
हांफता हुआ वो बूढ़ा बोला, बेटा मेरे गांव का रास्ता तो इधर से है... मम्मी पापा को बोलना बेलीराम मिला था। नमस्ते कह रहा था। ये कहकर वो चला गया। मैं मन ही मन उस बूढ़े का शुक्रिया अदा करता हुआ अपने गांव में दाखिल हो चुका था। भई आखिर उसकी वजह से कम से कम डर तो नहीं लगा रास्ते में। घर पहुंच कर अपना सामान रखा... मम्मी पापा से मिला फिर सोचा फारिग हो लेता हूं।
अब तक भूख भी लग आई थी सो रसोई में आ गया। पहाड़ों में गांव की रसोई काफी बड़ी होती है और थोड़ा अलग होती है। एक तरफ खाना बनता है चूल्हे पर दूसरी तरफ बैठकर खाना खाया जाता है। दिनभर की बातें भी वहीं पर हो जाती हैं। मां ने खाने की थाली दी। पानी का गिलास पकड़ाने लगी तो मैंने कहा मां... बेलीराम मिला था।
मां के हाथ से पानी का गिलास छूट गया। बोली उसे तो मरे हुए एक साल हो गया। पलभर को सांस रुक गई मेरी। कौन था वो जिसके साथ मैं चलता रहा.....वो असल में था भी या नहीं। भूत था... आत्मा थी या फिर और कोई। जब अकेला रास्ता पर डर रहा था मैं तो वो मेरा हमसफर बना और मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचा कर चला गया।
आज भी सोचता हूं ..तो उसका झुर्रियों वाला चेहरा दिखने लगता है। हालांकि गांव वाले ऐसा मानते हैं कि अच्छी आत्माएं होती हैं और आपको नुकसान नहीं पहंचाती। आत्मा होती है या नहीं होती... नहीं मालूम। पर वो था... जरूर था....